बेटियों की बेड़िया betiyon ki bediyan


कब कटेगी बेड़ियां इन सुकोमल पांव की 

अनपढ़ है बेटियां आज भी मेरे गांव की।

चूल्हा चौका ही रहा है आज तक इनकी कहानी

कंठ तक आने से पहले धावी गई इस चांव की ।

आश्रय की चाह में बढ़ना पाया बट वीपट 

यह जंग लोहे को गला दे नहीं चाह ऐसे छांव की 

रूढ़ियों से हम लगे हैं लग रही 

कुछ भी कया आज भी बुझा लगे 

क्यों संतान अपने ठांव की 

यह खिलौना क्यों बनी पंच और 

सरपंच बन चले सीआईस 

कौन बुझी चौसरी ठहराव की ।

कृष्ण देवी सिंह है मनु दुर्गा अवंती

देश की पत्थगड़ा स्वयं अपना जी

जिंदगी अभाव की चाहता हूं आज 

इनसे पड़े प्रतिभा से आग आगे सम्मान 

इनका घर करें गुणगान हो स्वभाव की हो

ऐसी फतेह ज्वाला घनघोर अंधेरा कर दे 

सबसे उपयोग उजाला जिंदगी भर अपने 

जीवन को पैमाने पर रखकर अपने गम को 

अपने मन को अपने तन को धो डाला 

जीवन से अपने संग को अपने से अपने 

रंग को सबके लिए चलिए अपने ढंग से 

दूसरों के लिए जी अपनों के बीच में कोई 

दूसरों के लिए जी अपनों के लिए रोए दूसरों 

के बनके हो गई अपनों के लिए पढ़ाई 

जिसे कहते हैं हम बेटी है।

बेटी जो जन्म लेते ही घर की लक्ष्मी खाई जाती है। 



















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