मैं औरत ना जाने कितने युगों से चलती रही
खामोश नंगे पांव सुलगती रेत पर
मैं औरत लादे रही बोझ की तरह
अनुचित शब्दों की गठरी अपने कंधों पर
मैं औरत दामन में जिसके भर दिए
लोगों ने जलते अंगारे अकाड़न
मैं वह फूल हूं जिसे बनाया भगवान ने
परंतु मार दिया पुरुष के अंह और
कुरीतियों के ढंग ने
मैं औरत बन गया जिसका जीवन
सुख-दुख की अनम्य कहानियों का भंडार
मैं औरत जिसके तन मन से बजा दिया बिगुल
स्वाभिमान के शंखनाद का
मैं औरत पुरुष रूपी फूल
को जनने वाली बगिया हूं
औरत पहला नाम स्त्री का दूसरा त्याग हूं
औरतों से यह जग सारा
औरतों ने है इस संसार को निखाड़ा
मैं औरत बन गई अब स्वयं की निर्मात्री
और कहलाई इस पृथ्वी पर दुर्गा देवी चामुंडा