पीड़ा pira


इतनी पीड़ा क्यों दी मुझको

जीवन रेगिस्तान हो गया ।

अधरो ने स्मृति भी भूली

नयनो का चंचल मन भूला 

तेरे नागफनी से मेरा 

दिल तो ल हूलुहान हो गया ।

यह तो ने सुर है विसराया

सरगम रीत गए सब मन के

तुम सा मीत गवाया जब से 

कविता का अवसान हो गया ।

घिरे घनद मुखड़ा पर ऐसे 

धूम भड़ी गोद ली जैसे 

पिघल पिघल आकाश दीप मन 

मेरा मन पाषाण हो गया ।

अमर बेल बनाना चाहा था 

कल्पवृक्ष तुमको जाना था 

कैसी बहिन-ललट उठी की

नंदन-वन वीरान हो गया ।

इतनी पीड़ा क्यों दे मुझको 

जीवन रेगिस्तान हो गया ।

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